ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र १२-१४


ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र १२-१४




अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ रताः॥१२॥
अर्थ-जो लोग तात्कालिक सुख के लिये असम्भूति की उपासना करते हैं वो घोर अन्धकार में जाते हैं। उससे भी घने अन्धकार में वे जाते हैं जो केवल सम्भूति में रत हैं।
अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१३॥
अर्थ-जिन धीर लोगों ने विशेष चिन्तन किया था उनसे हमने सुना है कि सम्भव (सम्भूति) का अन्य फल है तथा असम्भव (असम्भूति) का अन्य फल है।
सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयँ सह। विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते॥१४॥
अर्थ-जो सम्भूति और विनाश (असम्भूति) दोनों को एक साथ जानता है, वह विनाश द्वारा मृत्यु को पार करता है तथा सम्भूति से अमर हो जाता है।
व्याख्या-इसके पूर्व के ३ मन्त्रों में ज्ञान के २ रूपों विद्या-अविद्या के समन्वय के बारे में कहा है। यहां कर्म के दो रूपों के समन्वय के बारे में कहा है। विश्व में २ विपरीत क्रियाओं के समन्वय के बारे में पण्डित मधुसूदन ओझा ने संशय तदुच्छेद वाद के आरम्भ में लिखा है-
यदस्ति किञ्चित् तदिदं प्रतीमोऽविचालि शश्वत्स्थमनाद्यनन्तम्।
प्रतिक्षणान्याय-विकार-सृष्टि-प्रवाहवत् तद् द्विविरुद्धभावम्॥१॥
विरुद्धभावद्वयसंनिवेशत् सम्भाव्यते विश्वमिदं द्विमूलम्।
आभ्वभ्व संज्ञे स्त इमे च मूले द्रष्टाभु दृश्यं तु मतं तदभ्वम्॥२॥
= जो कुछ विश्व में है वह २ रूपों में प्रतीत होता है-एक स्थिर, अनादि, अनन्त है। दूसरा प्रतिक्षण विकार और सृष्टि प्रवाह में बदल रहा है। २ विरुद्ध भावों के एक साथ रहने से विश्व के २ मूल हैं-एक आभु (नित्य) तथा दूसरा अभ्व (अनित्य सृष्टि है)।
 कई प्रकार की विपरीत क्रियायें या उनके नाम हैं-
१. सृष्टि-प्रलय-सृष्टि के ९ सर्ग हैं। सबके निर्माण-विनाश के चक्र अलग अलग अवधि के हैं, जिनसे काल के ९ प्रकार के मान हैं।  
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वे प्रभवन्त्यहरागमे । रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञके ॥ (गीता ८/११)
यहां अव्यक्त एक ही है, व्यक्त के ९ सर्ग हैं।
इत्येते वै समाख्याता नव सर्गाः प्रजापतेः (विष्णुपुराण, १/५/२५)
भागवत पुराण (३/१०) में मूल अव्यक्त को मिला कर १० सर्ग कहे गयेहैं-
यथेदानीं तथाग्रे च पश्चादप्येतदीदृशम्॥१२॥ सर्गो नवविधस्तस्य प्राकृतो वैकृतस्तु यः॥१३॥
दशैते विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्कृताः॥२८॥
ब्राह्मं पित्र्यं तथा दिव्यं प्राजापत्यं च गौरवम् । सौरं सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव ॥ (सूर्य सिद्धान्त १४/१)
२. सम्भूति-असम्भूति या निर्माण-विनाश-हर सर्ग में निर्माण-विनाश सदा चल रहा है। आकाश में कहीं ग्रह-नक्षत्र बन रहे हैं, कहीं नष्ट हो रहे हैं। पृथ्वी पर सदा कुछ मनुष्य जन्म ले रहे हैं, कुछ मर रहे हैं।
३. सञ्चर-प्रतिसञ्चर-यह सांख्य दर्शन का शब्द है जो तत्त्व समास (६) में है। सञ्चर = गति, निर्माण दिशा। प्रतिसञ्चर = विपरीत गति, विनाश, प्रलय या मृत्यु।
 सबसे बड़ा चक्र है, विश्व की सृष्टि प्रलय का चक्र जो ब्रह्मा का दिन या कल्प कहलाता है। यह १००० युग = ४३२ कोटि वर्ष का है।
सहस्र युग पर्यन्तं अहर्यद् ब्रह्मणो विदुः। रात्रिं युग सहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥ (गीता, ८/१७)
विश्व की सभी क्रियायें चक्र हैं या चक्रों का समन्वय हैं। शरीर का चक्र-नाड़ी स्पन्दन, श्वास-प्रश्वास, पाचन कर्म (अपचय), जीवन मरण आदि हैं। हर शक्ति स्थानीय या गतिशील तरंग का कम्पन है। ताप द्वारा कण अपने ही स्थान पर कम्पन करते हैं। शब्द या विद्युत्-चुम्बकीय तरंग उद्गम से आगे बढ़ते जाते हैं, जिसके कारण मार्ग के कण चक्रीय गति करते हैं। दिन-रात भी प्रकाश-अन्धकार (रूप-तन्मात्रा) या सृष्टि-प्रलय का चक्र है। उसके कारण मनुष्य में जागरण-सिषुप्ति (मन-इन्द्रिय) का चक्र है। समय के सभी माप दिन, वर्ष (ऋतु चक्र), युग-सभी सृष्टि-प्रलय के चक्र हैं।
४. आध्यात्मिक अर्थ-विनाश या प्रलय अर्थ होने से यह नहीं समझना चाहिये कि प्रतिसञ्चर अवाञ्छनीय है। शरीर की पुष्टि के लिये भोजन लेते हैं। उसका निष्कासन भी जरूरी है। व्यापक रूप में इसका शरीर के भीतर अर्थ है-
अपाने जुह्वति प्राणोऽपाने तथापरे। प्राणापानगती रुद्धा प्राणायाम परायणाः॥१९॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्पाणेषु जुह्वति। सर्वेप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपित कल्मषाः॥२०॥ (गीता, ४/१९-२०)
= अन्य लोग प्राण को अपान में तथा अपान को प्राण में हवन करते हैं। कई प्राण या अपान की गति को नियन्त्रित कर प्राणायाम करते हैं। यह सभी यज्ञका ठीक रूप कर रहे हैं, जिससे उनके विकार नष्ट हो रहे हैं।
  प्राण ५ (+ २ असत्) प्रकार के हैं, शरीर (कोष) ७ प्रकार के हैं, तथा विकार १६ प्रकार के हैं। इस प्रकार इन यज्ञों के कई प्रकार के अर्थ हैं। अन्नमय कोष के लिये प्राण का अर्थ है अन्न से प्राप्त होने वाली शक्ति। भोजन के रूप में जो प्राण आता है, उसका अवशिष्ट अंश मल के रूप में नष्ट होता है। इस प्रकार अन्न का विकार नष्ट हो गया। अन्नमय प्राण ग्लूकोज, वसा अदि के रूप में शरीर में सञ्चित रहता है। वह प्राण का अपान में हवन है। जब शरीर की इन्द्रियां काम करती हैं, तो सञ्चित शक्ति खर्च होती है, जो अपान का प्राण में हवन है। इससे शरीर स्वस्थ और क्रियाशील रहता है तथा कार्य का मल कार्बन डायक्साइड केरूप में बाहर निकलता है। वसा का कम होना भी मल निकलना है।
५. आधिभौतिक अर्थ-कई प्रकार के यज्ञों से परिवार, समाज तथा देश का निर्माण होता है। इससे सबका जीवन चलता है या पालन होता है। अर्थात् सम्भूति से मृत्यु को पार करते हैं। पर इसमें जो अवाञ्छित पदार्थ या मल उत्पन्न होता है उसे भी नष्ट करना जरूरी है। इसके अतिरिक्त आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं से रक्षा के लिये उनका विनाश भी जरूरी है। इसलिये भगवान् ने गीतामें धर्म पालन के लिये युद्ध का आदेश दिया था। 
६. सम्भूति में असम्भूति और असम्भूति में सम्भूति-इसी प्रकार गीता में कहा है, कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म।
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म

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