पितृ दोष की शांति चाहते हैं तो श्राद्ध पक्ष में अवश्ये करें पितृ-सूक्तम् का पाठ
श्राद्ध का भोजन कैसा हो, श्राद्ध के भोजन में क्या नहीं पकाएं...
श्राद्ध का भोजन अतिरिक्त शुद्धि चाहता है। आइए
जानें श्राद्ध के भोजन में बरती जाने वाली सावधानियां... खीर पूरी अनिवार्य है।
-जौ, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ है।
-ज़्य़ादा पकवान पितरों की पसंद के होने चाहिए।
-गंगाजल, दूध, शहद, कुश और तिल सबसे ज्यादा ज़रूरी है।
-तिल ज़्यादा होने से उसका फल अक्षय होता है।
-तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं।
श्राद्ध के भोजन में क्या न पकाएं
-चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा
-कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी,प्याज और लहसन
-बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, खराब अन्न, फल और मेवे
ब्राह्मणों का आसन कैसा हो
-रेशमी, ऊनी, लकड़ी, कुश जैसे आसन पर भी बैठाएं।
-लोहे
के आसन पर ब्राह्मणों को कभी न बैठाएं।
पितृ दोष की शांति चाहते हैं तो श्राद्ध पक्ष में अवश्य करें
पितृ-सूक्तम् का पाठ
श्राद्ध पक्ष के दिनों में संध्या के समय तेल का दीपक जलाकर
पितृ-सूक्तम् का पाठ करने से पितृ दोष की शांति होती है और सर्व बाधा दूर होकर
उन्नति की प्राप्ति होती है।
धार्मिक पुराणों के अनुसार पितृ-सूक्तम्
पितृ दोष निवारण में अत्यंत चमत्कारी मंत्र पाठ है। यह पाठ शुभ फल प्रदान करने
वाला सभी के लिए लाभदायी है।
जो व्यक्ति जीवन में बहुत परेशानी का अनुभव करते हैं उनको तो यह पाठ श्राद्ध पक्ष के दिनों में, अमावस्या, पूर्णिमा के साथ-साथ प्रतिदिन अवश्य पढ़ना चाहिए। इससे उनके जीवन के समस्त संकट दूर होकर उन्हें पितरों का आशीष मिलता है...।
जो व्यक्ति जीवन में बहुत परेशानी का अनुभव करते हैं उनको तो यह पाठ श्राद्ध पक्ष के दिनों में, अमावस्या, पूर्णिमा के साथ-साथ प्रतिदिन अवश्य पढ़ना चाहिए। इससे उनके जीवन के समस्त संकट दूर होकर उन्हें पितरों का आशीष मिलता है...।
।। पितृ-सूक्तम् ।।
उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः
सोम्यासः।
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु
पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः
सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे
सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे
सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः
प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम्
अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त
धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि
चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः
अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु
द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम
पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या
चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो
दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं
च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः
तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु
निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि
ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः
पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि
ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत
सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम्
सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता
मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं
तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से
सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम
पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम्
अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः
पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त
दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ
इह ऊर्जम् दधात॥15॥
॥ ॐ शांति: शांति:शांति:॥
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