क्रोध हमारे अंग का अभिन्न अंग है
#दुर्वासा :
हम सबके अंदर दुर्वासा हैं।
दुर्वासा प्रतीक हैं क्रोध का।
क्रोध हमारे मनस का अभिन्न अंग है।
दुर्वासा - वासनाओं का संसार पाला हुवा हर व्यक्ति दुर्वासा है, जो वासनाओं के अपूर्त होते ही दुख के सागर में डूब जाता है। दुख का परिणाम है क्रोध या अवसाद।
यदि क्रोध की अभिव्यक्ति में व्यक्ति सक्षम है तो वह क्रोध हिंसक होकर दूसरे को शापित करता है।
यदि क्रोध की अभिव्यक्ति में अक्षम है तो वह स्वयं को शापित करता है। जिससे अवसाद उतपन्न होता है।
नेगेटिव एनर्जी का स्रोत है - हर व्यक्ति के अंदर बैठा हुआ दुर्वासा। उसको क्षमा करना नहीं आता। इसीलिए वह अशांत होता है। दुख में होता है। वासनाओं के वेग से दुखी व्यक्ति ही दुर्वासा है।
उसको भी हमने ऋषि कहा है।
प्रकृति के नियम को हम ऋत कहते हैं।
प्रकृति का यही नियम है:
ध्यायतो विषयां पुंस: संग तेषु उपजायते।
संगात संजायते कामः कमात् क्रोधः अभिजायते।
क्रोधात भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृति भ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धि नाशात् प्रणश्यति।।
- भगवत गीता।
काम यदि उपजा और उसकी पूर्ति न हुई तो क्रोध उतपन्न होगा। क्रोध आपको विनष्ट करता है। यह हम सभी जानते हैं। परंतु उस पर नियंत्रण करना नहीं सीख पाते। नियंत्रण का अर्थ उसका दमन नहीं है।
दमन का अर्थ है नेगेटिव एनर्जी का हमारे अंदर ही रुक जाना - नेगेटिव एनर्जी हमारे अंदर संचित होती है तो वह हमारे शरीर मे हार्मोन, न्यूरोट्रांसमीटर आदि के रूप में केमिकल उत्पन्न करती है। यह केमिकल हमारे स्वास से आने वाले ऑक्सीजन से मिलकर उसका इलेक्ट्रान अवशोषित कर लेते हैं।उसके कारण निकलने वाले तत्व हमारे शरीर और मनस का संघात करते हैं। मेडिकल साइंस उसको फ्री रेडिकल कहता है।
यह फ्री रेडिकल - ब्लड प्रेसर, डायबिटीज, डिप्रेशन, एंग्जायटी से लेकर कैंसर तक की बीमारियां पैदा करता है।
दुर्वासा से बचने के लिए दुर्वासनाओं से बचना होगा।
प्रकृति और पुरुष दोनों के मिश्रण से हम बने हैं। प्रकृति के बस में जीने वाला हर व्यक्ति दुर्वासा है।
प्रकृति के बंधन से विमुक्त हर व्यक्ति पुरुष है।
जिसका उद्घोष उपनिषद करते हैं - अहं ब्रम्हाश्मि।
लेकिन प्रकृति की माया अपरम्पार है,उससे मुक्त होना बहुत दुर्लभ है।
कृश्नः कहते हैं :
दैवी हि ऐषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मेरी माया देवी है, इससे पार पाना बहुत दुष्कर है।
कबीर कहते हैं:
माया महठगिन हम जानी।
तिर्गुन फ़ांस लिए कर डोले।
बोले मधुरी वानी।
माया महठगिन हम जानी।
संत श्री वेदान्त महाराज जी 9981293090
हम सबके अंदर दुर्वासा हैं।
दुर्वासा प्रतीक हैं क्रोध का।
क्रोध हमारे मनस का अभिन्न अंग है।
दुर्वासा - वासनाओं का संसार पाला हुवा हर व्यक्ति दुर्वासा है, जो वासनाओं के अपूर्त होते ही दुख के सागर में डूब जाता है। दुख का परिणाम है क्रोध या अवसाद।
यदि क्रोध की अभिव्यक्ति में व्यक्ति सक्षम है तो वह क्रोध हिंसक होकर दूसरे को शापित करता है।
यदि क्रोध की अभिव्यक्ति में अक्षम है तो वह स्वयं को शापित करता है। जिससे अवसाद उतपन्न होता है।
नेगेटिव एनर्जी का स्रोत है - हर व्यक्ति के अंदर बैठा हुआ दुर्वासा। उसको क्षमा करना नहीं आता। इसीलिए वह अशांत होता है। दुख में होता है। वासनाओं के वेग से दुखी व्यक्ति ही दुर्वासा है।
उसको भी हमने ऋषि कहा है।
प्रकृति के नियम को हम ऋत कहते हैं।
प्रकृति का यही नियम है:
ध्यायतो विषयां पुंस: संग तेषु उपजायते।
संगात संजायते कामः कमात् क्रोधः अभिजायते।
क्रोधात भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृति भ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धि नाशात् प्रणश्यति।।
- भगवत गीता।
काम यदि उपजा और उसकी पूर्ति न हुई तो क्रोध उतपन्न होगा। क्रोध आपको विनष्ट करता है। यह हम सभी जानते हैं। परंतु उस पर नियंत्रण करना नहीं सीख पाते। नियंत्रण का अर्थ उसका दमन नहीं है।
दमन का अर्थ है नेगेटिव एनर्जी का हमारे अंदर ही रुक जाना - नेगेटिव एनर्जी हमारे अंदर संचित होती है तो वह हमारे शरीर मे हार्मोन, न्यूरोट्रांसमीटर आदि के रूप में केमिकल उत्पन्न करती है। यह केमिकल हमारे स्वास से आने वाले ऑक्सीजन से मिलकर उसका इलेक्ट्रान अवशोषित कर लेते हैं।उसके कारण निकलने वाले तत्व हमारे शरीर और मनस का संघात करते हैं। मेडिकल साइंस उसको फ्री रेडिकल कहता है।
यह फ्री रेडिकल - ब्लड प्रेसर, डायबिटीज, डिप्रेशन, एंग्जायटी से लेकर कैंसर तक की बीमारियां पैदा करता है।
दुर्वासा से बचने के लिए दुर्वासनाओं से बचना होगा।
प्रकृति और पुरुष दोनों के मिश्रण से हम बने हैं। प्रकृति के बस में जीने वाला हर व्यक्ति दुर्वासा है।
प्रकृति के बंधन से विमुक्त हर व्यक्ति पुरुष है।
जिसका उद्घोष उपनिषद करते हैं - अहं ब्रम्हाश्मि।
लेकिन प्रकृति की माया अपरम्पार है,उससे मुक्त होना बहुत दुर्लभ है।
कृश्नः कहते हैं :
दैवी हि ऐषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मेरी माया देवी है, इससे पार पाना बहुत दुष्कर है।
कबीर कहते हैं:
माया महठगिन हम जानी।
तिर्गुन फ़ांस लिए कर डोले।
बोले मधुरी वानी।
माया महठगिन हम जानी।
संत श्री वेदान्त महाराज जी 9981293090
Post a Comment