कृष्ण जन्मभूमि मथुरा का मंदिर देखकर दंग रह गया था लुटेरा महमूद गजनवी
कृष्ण जन्मभूमि मथुरा का मंदिर देखकर दंग रह गया था लुटेरा महमूद गजनवी
लीलाधर कृष्ण की
जन्मस्थली मथुरा में बने भव्य मंदिर को देखकर लुटेरा महमूद गजनवी भी आश्चर्यचकित
रह गया था। उसके मीर मुंशी अल उत्वी ने अपनी पुस्तक तारीखे यामिनी में लिखा है कि
गनजवी ने मंदिर की भव्यता देखकर कहा था कि इस मंदिर के बारे में शब्दों या चित्रों
से बखान करना नामुमकिन है। उसका अनुमान था कि वैसा भव्य मंदिर बनाने में दस करोड़
दीनार खर्च करने होंगे और इसमें दो सौ साल लगेंगे।
ईस्वी सन् 1017-18 में महमूद गजनवी ने मथुरा के समस्त मंदिर तुड़वा
दिए थे, लेकिन उसके लौटते ही मंदिर बन गए। मथुरा के
मंदिरों के टूटने और बनने का सिलसिला भी कई बार चला। बाद में इसे महाराजा विजयपाल
देव के शासन में सन् 1150
ई. में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने बनवाया। यह
मंदिर पहले की अपेक्षा और भी विशाल था, जिसे 16वीं शताब्दी के आरंभ में सिकंदर लोदी ने नष्ट
करवा डाला।
ओरछा के शासक राजा
वीरसिंह जू देव बुन्देला ने पुन: इस खंडहर पड़े स्थान पर एक भव्य और पहले की
अपेक्षा विशाल मंदिर बनवाया। इसके संबंध में कहा जाता है कि यह इतना ऊंचा और विशाल
था कि यह आगरा से दिखाई देता था। लेकिन इसे भी मुस्लिम शासकों ने सन् 1669 ईस्वी में नष्ट कर इसकी भवन सामग्री से जन्मभूमि
के आधे हिस्से पर एक भव्य ईदगाह बनवा दी गई, जो कि आज भी
विद्यमान है। इस ईदगाह के पीछे ही महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी की प्रेरणा से
पुन: एक मंदिर स्थापित किया गया है, लेकिन अब यह विवादित
क्षेत्र बन चुका है क्योंकि जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह है और आधे पर मंदिर।
हिन्दू इतिहास के
अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन कंस के
कारागार में हुआ था। कथाओं के अनुसार उनके प्रपौत्र व्रजनाभ ने ही सर्वप्रथम उनकी
स्मृति में केशवदेव मंदिर की स्थापना की थी।
इसके बाद यह मंदिर 80-57 ईसा पूर्व बनाया गया था। इस संबंध में महाक्षत्रप
सौदास के समय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि किसी 'वसु' नामक व्यक्ति ने यह
मंदिर बनाया था। इसके बहुत काल के बाद दूसरा मंदिर सन् 800 में विक्रमादित्य के काल में बनवाया गया था, जबकि बौद्ध और जैन धर्म उन्नति कर रहे थे।
ऐतिहासिक एवं
पुरातात्विक प्रमाण की दृष्टि से सबसे पुराना शिलालेख महाक्षत्रप शोडास (ईसा पूर्व
80 से 57 तक) के समय का मिला
है। ब्राह्मी लिपि के इस शिलालेख के अनुसार उसके राज्यकाल में वसु नामक एक व्यक्ति
ने श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर एक मंदिर, तोरण द्वार और वेदी
का निर्माण कराया था। काल के थपेड़ों ने मंदिर की स्थिति खराब बना दी। करीब 400 साल बाद गुप्त सम्राट विक्रमादित्य ने उसी स्थान
पर भव्य मंदिर बनवाया। इसका वर्णन भारत यात्रा पर आए चीनी यात्रियों फाह्यान और
ह्वेनसांग ने भी किया है।
बाद में मथुरा के
राजा विजयपाल के कार्यकाल में एक श्रद्धालु ने मंदिर को नया जीवन प्रदान किया, लेकिन सिकंदर लोदी की बुरी नजर उस पर पड़ी और उसने
मंदिर तुड़वा दिया। बाद में ओरछा नरेश वीरसिंह देव बुंदेला ने भव्य मंदिर बनवाया।
उस समय के बादशाह जहांगीर ने ही बुंदेला को पुनर्निर्माण की इजाजत दी थी।
फ्रांसीसी यात्री
टैबरनियर 17वीं सदी में भारत आया था और उसने अपने वृत्तांतों
में मंदिर की भव्यता का जिक्र किया है। इतालवी सैलानी मनूची के अनुसार केशवदेव
मंदिर का स्वर्णाच्छादित शिखर इतना ऊँचा था कि दीपावली की रात उस पर जले दीपकों का
प्रकाश 18 कोस दूर स्थित आगरा में भी दिखता था।
कई बार बने और टूटे
इस मंदिर पर अंतिम प्रहार औरंगजेब ने किया। बहरहाल महामना मदनमोहन मालवीय और
जुगलकिशोर बिड़ला के प्रयासों से 1951 में एक ट्रस्ट बनाकर
1953 में मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य शुरू किया गया।
1958 में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन मंदिर का लोकार्पण
हुआ। बाद में ट्रस्ट ने औषधालय, विश्रामगृह तथा
भागवत भवन का भी निर्माण कराया।
श्रीकृष्ण के इस
भव्य एवं दिव्य मंदिर का इतिहास पिछले दो हजार साल में काफी उतार-चढ़ाव का रहा है।
आतताइयों ने इसे कम से कम तीन बार नष्ट किया, लेकिन भक्तों की
श्रद्धा एवं विश्वास में कोई कमी नहीं आई। आज भी हर साल भारी तादाद में कृष्ण
उपासक यहाँ आकर अपने को धन्य महसूस करते हैं और 'जय
कन्हैयालाल की' का उद्घोष करते हैं।
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