बारह ज्योतिर्लिंगों सहित महादेव की कथा तथा प्रमुख रूद्र तीर्थों का परिचय
बारह ज्योतिर्लिंगों सहित महादेव की कथा तथा प्रमुख
रूद्र तीर्थों का परिचय
पशुपतिनाथ महादेव का अदभुत ज्योतिर्लिंग
पुराणों में शिव का नाम ‘रुद्र’ रूप में आया है। रुद्र संहार के
देवता और कल्याणकारी हैं ,, विष्णु की भांति शिव के भी अनेक अवतारों का वर्णन पुराणों में
प्राप्त होता है।शिव की महत्ता पुराणों के अन्य सभी देवताओं में सर्वाधिक है।
जटाजूटधारी, भस्म भभूत
शरीर पर लगाए, गले में
नाग, रुद्राक्ष की मालाएं, जटाओं में चंद्र ,गंगा की धारा, हाथ में त्रिशूल एवं कटि में
बाघम्बर और नंगे पांव रहने वाले शिव कैलास धाम में निवास करते हैं,,पार्वती उनकी पत्नी अथवा शक्त्ति
है। गणेश और कार्तिकेय के वे पिता हैं।
शिव भक्त्तों के उद्धार के लिए वे स्वयं दौड़े चले आते हैं। सुर-असुर और नर-नारी—वे सभी के अराध्य हैं।शिव की पहली पत्नी राजा दक्षराज की पुत्री थी, जो दक्षयज्ञ में आत्मदाह कर चुकी थी। उन्हे अपने पिता द्वारा शिव का अपमान सहन नहीं हुआ था। इसी से उन्होने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली थी।'सती' शिव की शक्त्ति थी। सती के पिता दक्षराज शिव को पसंद नहीं करते थे। उनकी वेशभूषा और उनके गण सदैव उन्हें भयभीत करते रहते थे। एक बार दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया और शिव का अपमान करने के लिये शिव को निमन्त्रण नहीं भेजा। सती बिना बुलाए पिता के यज्ञ में गई। वहां उसे अपमानित होना पड़ा और अपने जीवन का मोह छोड़ना पड़ा। उसने आत्मदाह कर लिया। जब शिव ने सती दाह का समाचार सुना तो वे शोक विह्वल होकर क्रोध में भर उठे। अपने गणों के साथ जाकर उन्होंने दक्ष-यज्ञ विध्वंस कर दिया। वे सती का शव लेकर इधर-उधर भटकने लगे। तब ब्रह्माजी के आग्रह पर विष्णु ने सती के शव को काट-काटकर धरती पर गिराना शुरू किया। वे शव-अंग जहां-जहां गिरे, वहां तीर्थ बन गए। इस प्रकार शव-मोह से शिव मुक्त्त हुए।बाद में तारकासुर के वध के लिए शिव का विवाह हिमालय पुत्री उमा (पार्वती) से कराया गया। परन्तु शिव के मन में काम-भावना नहीं उत्पन्न हो सकी। तब कामदेव को उनकी समाधि भंग करने के लिए भेजा गया। परंतु शिव ने कामदेव को ही भस्म कर दिया। बहुत बाद में देवगण शिव पुत्र—गणपति और कार्तिकेय को पाने में सफल हुए तथा तारकासुर का वध हो सका।शिव के सर्वाधिक प्रसिद्ध अवतारों में अर्द्धनारीश्वर अवतार का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मा ने सृष्टि विकास के लिए इसी अवतार से संकेत पाकर मैथुनी-सृष्टि का शुभारम्भ कराया था।
शिव पुराण में शिव के भी दशावतारों का वर्णन मिलता है, उनमें महाकाल, तारा, भुवनेश, षोडश, भैरव, छिन्नमस्तक गिरिजा , धूम्रवान, बगलामुखी, मातंग और कमल नामक अवतार हैं । भगवान शंकर के ये दसों अवतार तन्त्र शास्त्र से सम्बन्धित हैं। ये अद्भुत शक्त्तियों को धारण करने वाले हैं।
शिव भक्त्तों के उद्धार के लिए वे स्वयं दौड़े चले आते हैं। सुर-असुर और नर-नारी—वे सभी के अराध्य हैं।शिव की पहली पत्नी राजा दक्षराज की पुत्री थी, जो दक्षयज्ञ में आत्मदाह कर चुकी थी। उन्हे अपने पिता द्वारा शिव का अपमान सहन नहीं हुआ था। इसी से उन्होने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली थी।'सती' शिव की शक्त्ति थी। सती के पिता दक्षराज शिव को पसंद नहीं करते थे। उनकी वेशभूषा और उनके गण सदैव उन्हें भयभीत करते रहते थे। एक बार दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया और शिव का अपमान करने के लिये शिव को निमन्त्रण नहीं भेजा। सती बिना बुलाए पिता के यज्ञ में गई। वहां उसे अपमानित होना पड़ा और अपने जीवन का मोह छोड़ना पड़ा। उसने आत्मदाह कर लिया। जब शिव ने सती दाह का समाचार सुना तो वे शोक विह्वल होकर क्रोध में भर उठे। अपने गणों के साथ जाकर उन्होंने दक्ष-यज्ञ विध्वंस कर दिया। वे सती का शव लेकर इधर-उधर भटकने लगे। तब ब्रह्माजी के आग्रह पर विष्णु ने सती के शव को काट-काटकर धरती पर गिराना शुरू किया। वे शव-अंग जहां-जहां गिरे, वहां तीर्थ बन गए। इस प्रकार शव-मोह से शिव मुक्त्त हुए।बाद में तारकासुर के वध के लिए शिव का विवाह हिमालय पुत्री उमा (पार्वती) से कराया गया। परन्तु शिव के मन में काम-भावना नहीं उत्पन्न हो सकी। तब कामदेव को उनकी समाधि भंग करने के लिए भेजा गया। परंतु शिव ने कामदेव को ही भस्म कर दिया। बहुत बाद में देवगण शिव पुत्र—गणपति और कार्तिकेय को पाने में सफल हुए तथा तारकासुर का वध हो सका।शिव के सर्वाधिक प्रसिद्ध अवतारों में अर्द्धनारीश्वर अवतार का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मा ने सृष्टि विकास के लिए इसी अवतार से संकेत पाकर मैथुनी-सृष्टि का शुभारम्भ कराया था।
शिव पुराण में शिव के भी दशावतारों का वर्णन मिलता है, उनमें महाकाल, तारा, भुवनेश, षोडश, भैरव, छिन्नमस्तक गिरिजा , धूम्रवान, बगलामुखी, मातंग और कमल नामक अवतार हैं । भगवान शंकर के ये दसों अवतार तन्त्र शास्त्र से सम्बन्धित हैं। ये अद्भुत शक्त्तियों को धारण करने वाले हैं।
शिव के अन्य ग्यारह अवतारों में
कपाली , पिंगल , भीम , विरुपाक्ष , विलोहित , शास्ता , अजपाद , आपिर्बुध्य , शम्भु , चण्ड तथा भव का उल्लेख मिलता है।
ये सभी सुख देने वाले शिव रूप हैं , दैत्यों के संहारक और देवताओं के
रक्षक हैं।
इन अवतारों के अतिरिक्त्त शिव के दुर्वासा , हनुमान , महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ , द्विजेश्वर , हंसरूप , अवधूतेश्वर , भिक्षुवर्य , सुरेश्वर , ब्रह्मचारी , सुनटनतर्क , द्विज ,अश्वत्थामा , किरात और नतेश्वर आदि अवतारों का
उल्लेख भी 'शिव पुराण' में हुआ है।
शिव के बारह ज्योतिर्लिंग भी अवतारों की ही श्रेणी में आते
हैं!
ये बारह ज्योतिर्लिंग हैं-
ये बारह ज्योतिर्लिंग हैं-
सौराष्ट्र में ‘सोमनाथ’,
श्रीशैल में ‘मल्लिकार्जुन’,
उज्जयिनी में ‘महाकालेश्वर’,
ओंकार में ‘अम्लेश्वर / ओंकारेश्वर’,
हिमालय में ‘केदारनाथ’,
डाकिनी में ‘भीमेश्वर’,
काशी में ‘विश्वनाथ’,
गोमती तट पर ‘त्र्यम्बकेश्वर’,
चिताभूमि में ‘वैद्यनाथ’,
दारुक वन में ‘नागेश्वर’,
सेतुबन्ध में ‘रामेश्वर’ और
शिवालय में ‘घुश्मेश्वर’।
श्रीशैल में ‘मल्लिकार्जुन’,
उज्जयिनी में ‘महाकालेश्वर’,
ओंकार में ‘अम्लेश्वर / ओंकारेश्वर’,
हिमालय में ‘केदारनाथ’,
डाकिनी में ‘भीमेश्वर’,
काशी में ‘विश्वनाथ’,
गोमती तट पर ‘त्र्यम्बकेश्वर’,
चिताभूमि में ‘वैद्यनाथ’,
दारुक वन में ‘नागेश्वर’,
सेतुबन्ध में ‘रामेश्वर’ और
शिवालय में ‘घुश्मेश्वर’।
अन्य देवगण-
पुराणों में ब्रह्मा, वरुण, कुबेर, वायु, सूर्य, यमराज, अग्नि, मरुत, चन्द्र, नर-नारायण आदि देवताओं के अवतारों का वर्णन बहुत कम संख्या में है उनके प्रसंग प्रायः इन्द्र के साथ ही आते हैं।
पुराणों में ब्रह्मा, वरुण, कुबेर, वायु, सूर्य, यमराज, अग्नि, मरुत, चन्द्र, नर-नारायण आदि देवताओं के अवतारों का वर्णन बहुत कम संख्या में है उनके प्रसंग प्रायः इन्द्र के साथ ही आते हैं।
द्वादश ज्योतिर्लिंगों की महिमा
भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग
देश के अलग-अलग भागों में स्थित हैं। इन्हें बारह ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना
जाता है। शिवपुराण में इन ज्योतिर्लिंगों का उल्लेख है। इनके दर्शन मात्र से सभी
तीर्थों का फल प्राप्त होता है।
भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग
सभी ज्योतिर्लिंग भारतभूमि के
अलग-अलग भागों में स्थित हैं इन्हें द्वादश ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है।
शिवपुराण में इन ज्योतिर्लिंगों का उल्लेख है। इनके दर्शन मात्र से सभी तीर्थों का
फल प्राप्त होता है। तो आईये, जानते हैं शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों के बारे में….
1. सोमनाथ (गुजरात, सौराष्ट्र)
सदियों पुराना यह ज्योतिर्लिंग
सौराष्ट्र (गुजरात) के प्रभास क्षेत्र में विराजमान है। इस प्रसिद्ध मंदिर को अब
तक छह बार ध्वस्त एवं निर्मित किया जा चुका है। 1022 ई. में इसकी समृद्धि को महमूद
गजनवी के हमले से सर्वाधिक नुकसान पहुंचा था। फिर कई बार यह मंदिर लुटेरों और
आतंकियों का शिकार बना, लेकिन हर
बार शिव भक्तों द्वारा और शिव महिमा के कारण अपने अस्तित्व में आता रहा। श्री
सोमनाथ-ज्योतिर्लिंग की महिमा महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा स्कन्दपुराणादि
में विस्तार से बताई गई है। श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का आविर्भाव दक्ष प्रजापति
और चन्द्र देवता के साथ जुड़ा है। दक्ष प्रजापति ने अपनी अश्विनी आदि सत्ताइस
कन्याओं का विवाह चंद्र देवता के साथ कर दिया, पर चंद्र देवता को अपनी सत्ताइस
पत्नियों में से रोहणी अधिक प्रिय थी। इसी भेदभाव के कारण उनकी शेष पत्नियां बहुत
दुखी हुईं। वे सभी अपने पिता दक्ष की शरण में गईं और उनसे अपना कष्ट बताया। चंद्रमा
ने जब दक्ष की अवहेलना की तब दक्ष ने चंद्रमा को शाप दे दिया। और चंद्रमा को क्षय
रोग हो गया। ब्रह्म के आदेश पर चंद्रमा ने प्रभास क्षेत्र में शिव की उपासना की और
फलस्वरूप रोग मुक्त हुए। इस शिवलिंग की पूजा से क्षय तथा कोढ़ आदि रोग सर्वथा के
लिए समाप्त हो जाते हैं। चंद्र के द्वारा पूजित होने के कारण इसे सोमनाथ कहते हैं।
2. श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग
आंध्रप्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर दक्षिण का कैलाश कहे जाने वाले श्रीशैल पर्वत
पर स्थित है। महाभारत, शिवपुराण तथा
पद्मपुराण आदि धर्मग्रंथों में इसकी महिमा और महत्ता का विस्तार से वर्णन किया गया
है। श्री मल्लिकार्जुन की कथा कुछ इस प्रकार है कि शिव-पार्वती के पुत्र कार्तिकेय
और गणेश में पहले किसका विवाह होगा, इस पर कलह होने लगी। शर्त यह रखी
गई कि जो पहले पृथ्वी की परिक्रमा करेगा, उसी का विवाह पहले होगा। बुद्धि
के सागर श्री गणेश ने माता-पिता की परिक्रमा कर पृथ्वी की परिक्रमा का फल प्राप्त
किया। जब कार्तिकेय परिक्रमा कर वापस लौटे तब देवर्षि नारद ने उन्हें सारा वृतांत
सुनाया और कुमार कार्तिकेय ने क्रोध के कारण हिमालय छोड़ दिया और क्रौंच पर्वत पर
रहने लगे। कोमल हृदय से युक्त माता-पिता पुत्र स्नेह में क्रौंच पर्वत पहुंच गए।
कार्तिकेय को क्रौंच पर्वत पर जब अपने माता-पिता के आने की सूचना मिली तो वह उस
स्थान से तीन योजन दूर चले गए। कार्तिकेय के क्रौंच पर्वत पर से चले जाने पर ज्योतिर्लिंग
के रूप में शिव-पार्वती प्रकट हुए। तभी से वे मल्लिकार्जुन के नाम से प्रसिद्ध
हुए। मल्लिका अर्थात पार्वती और अर्जुन अर्थात शिव। इस ज्योतिर्लिंग की पूजा से
अवश्मेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। आदि शंकराचार्य ने शिवानंद लहरी की रचना यहीं
की थी।
भारत के हृदयस्थल मध्यप्रदेश के
उज्जैन में पुण्य सलिला क्षिप्रा के तट के निकट भगवान शिव महाकालेश्वर
ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजमान हैं। देशभर के बारह ज्योतिर्लिंगों में
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का अपना एक अलग महत्व है। कहा जाता है कि जो महाकाल का
भक्त है, उसका काल
भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। उज्जैन को प्राचीनकाल में अवंतिकापुरी कहते थे।
श्री महाकालेश्वर की कथा इस
प्रकार है कि अवंति नामक नगरी में शुभ कर्मपरायण तथा सदा वेदों के स्वाध्याय में
लगे रहने वाला एक वेदप्रिय नामक ब्राह्मण रहता था। जिसके चार संस्कारी पुत्र थे।
उन दिनों रत्नमाला पर्वत पर दूषण नामक एक असुर ने धर्मविरोधी कार्य आरंभ कर रखा
था। सबको नष्ट कर देने के बाद उस असुर ने अवंति (उज्जैन) पर भारी सेना लेकर चढ़ाई
कर दी। अवंति नगर के निवासी जब उस संकट में घबराने लगे, तब वेदप्रिय के चारों पुत्रों के
साथ सभी नगरवासी शिवजी के पूजन में तल्लीन हो गए। दूषण ने ध्यानमग्न नगर वासियों
को मारने का आदेश दिया। तब भी वेदप्रिय के पुत्रों ने नगर वासियों को शिव के ध्यान
में मग्न रहने को कहा। दूषण ने देखा कि यह डरने वाले नहीं हैं तो इन्हें मार ही
दिया जाए और जब वह आगे बढ़ा, त्योंहि शिव भक्तों द्वारा पूजित उस पार्थिवलिंग से विकट और
भयंकर रूपधारी भगवान शिव प्रकट हुए और दुष्ट असुरों का नाश कर यहीं महाकाल के रूप
में विख्यात हुए। शिव ने अपने हुंकार से दैत्यों को भस्म कर उनकी राख को अपने शरीर
पर लगाया। तभी से इस मंदिर में महाकाल को भस्म लगाई जाती है। इस मंदिर की विशेषता
यह है कि मंदिर के गर्भगृह में निकास का द्वार दक्षिण दिशा की ओर है। जो तांत्रिक
पीठ के रूप में इसे स्थापित करता है।
4. ओंकारेश्वर (मध्य प्रदेश, नर्मदा नदी में एक द्वीप पर)
कहा जाता है कि वराह कल्प में जब
सारी पृथ्वी जल में मग्न हो गई थी तो उस वक्त भी मार्केंडेय ऋषि का आश्रम जल से
अछूता था। यह आश्रम नर्मदा के तट पर ओंकारेश्वर में है। ओंकारेश्वर का निर्माण
नर्मदा नदी से स्वतः ही हुआ है। शास्त्र मान्यता है कि कोई भी तीर्थयात्री देश के
भले ही सारे तीर्थ कर ले, किन्तु जब
तक वह ओंकारेश्वर आकर किए गए तीर्थों का जल लाकर यहां नहीं चढ़ाता, उसके सारे तीर्थ अधूरे माने जाते
हैं।
ओंकारेश्वर के साथ ही अमलेश्वर
ज्योतिर्लिंग भी है। इन दोनों शिवलिंगों की गणना एक ही ज्योतिर्लिंग में की गई है।
देवताओं और ऋषियों ने शिव से प्रार्थना की थी कि वे विंध्य क्षेत्र में स्थिर होकर
निवास करें। शिवजी ने बात मान ली। वहां स्थित एक ही ओंकारलिंग दो स्वरूपों में
विभक्त हो गया। प्रणव के अंतर्गत जो सदाशिव विद्यमान हुए, उन्हें ओंकार नाम से जाना जाता
है। इसी प्रकार पार्थिवमूर्ति में जो ज्योति प्रतिष्ठित हुई थी, उसे ही परमेश्वर अथवा अमलेश्वर
लिंग कहते हैं।
5. वैद्यनाथ (झारखंड, देवघर)
शिवपुराण में वैद्यनाथ चिताभूमौ
ऐसा पाठ है, इसके
अनुसार (झारखंड) राज्य के संथाल परगना क्षेत्र में जसीडीह स्टेशन के पास देवघर
(वैद्यनाथ धाम) नामक स्थान पर श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग सिद्ध होता है, क्योंकि यही चिताभूमि है। परंपरा
और पौराणिक कथाओं से देवघर स्थित श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को ही प्रमाणिक
मान्यता है। हर साल लाखों श्रद्धालु सावन के माह में सुलतानगंज से गंगाजल लाकर
यहां चढ़ाते हैं।
श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग
राक्षस राज रावण द्वारा स्थापित है। यहां माता सती का हृदय गिरा था। इसी कारण इसे
मनोकामना ज्योतिर्लिंग भी कहते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार विश्व विजयी बनने के
लिए रावण शिव का स्वरूप ज्योतिर्लिंग लंका लेकर आ रहा था, तब दैवी इच्छा के अनुसार शिवलिंग
रास्ते में ही रख दिया गया और तभी से यह देव स्थान भक्तों की आस्था का केंद्र है।
6. भीमाशंकर / भीष्मेश्वर महादेव
(महाराष्ट्र, भीमाशंकर)
शिव का छठा ज्योतिर्लिंग भीमाशंकर
है। इसके मंदिर को लेकर लोगों की अलग-अलग राय है। कुछ लोग असम राज्य के कामरूप
जिले में स्थित शिवलिंग को भीमाशंकर मानते हैं, तो कुछ लोग महाराष्ट्र राज्य के
पुणे जिले में स्थित भीमाशंकर के मंदिर को सही मानते हैं। कुछ लोगों का मानना है
कि उत्तरांचल राज्य के उधमसिंह नगर जिले में स्थित उज्जनक नामक स्थान में स्थित
शिव मंदिर ही भीमाशंकर का मंदिर है।
श्री भीमाशंकर की कथा इस प्रकार
है कि पूर्व काल में भीम नामक एक महाबलशाली राक्षस था। वह राक्षस कुंभकर्ण और
कर्कट की पुत्री कर्कटी से उत्पन्न हुआ था। उसने संकल्प लेकर ब्रह्मा जी को
प्रसन्न करने हेतु एक हजार वर्ष तक तप किया। उसकी तपस्या से लोकपितामह ब्रह्माजी
प्रसन्न हो उठे। भीम को अतुलनीय बल प्रदान किया। ब्रह्मा के वरदान के कारण भीम ने
इंद्र आदि सभी देवताओं को हरा दिया। यहां तक की श्रीहरि को भी परास्त कर दिया।
विश्व विजयी अभियान में भीम ने शिव के परम भक्त सुदक्षिण को युद्ध में परास्त कर दिया।
राजा सुदक्षिण को असुर भीम ने कारागार में डाल दिया। तब राजा ने शिव जी की उत्तम
पार्थिव मूर्ति बनाकर पूजा-अर्चना शुरू कर दी। देवताओं और ट्टषियों ने महाकोशी नदी
के किनारे भगवान शिव की स्तुति की। तब शिव ने राक्षस का वध किया और तभी से भीमशंकर
शिवलिंग विख्यात हुआ।
अमूमन अधिकतर शिव भक्त महाराष्ट्र
के भीमाशंकर के शिवलिंग को ही शिव का छठा ज्योतिर्लिंग मानते हैं। भीमाशंकर का यह
मंदिर सह्याद्रि पर्वत पर है। मंदिर अत्यंत पुराना और कलात्मक है। मंदिर में स्थित
मूर्ति से जल झरता है।
7. रामेश्वरम् (तमिलनाडु, रामेश्वरम)
श्रीरामेश्वरम् तीर्थ तमिलनाडु
प्रांत के रामनाड जिले में है। रामेश्वरम् की स्थापना के विषय में कहा जाता है कि
श्रीराम ने जब रावण वध हेतु लंका पर चढ़ाई की थी, तब विजयश्री की प्राप्ति हेतु
उन्होंने श्री रामेश्वरम में ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। एक अन्य शास्त्रोक्त कथा
भी प्रचलित है। रावण वध के बाद उन्हें ब्रह्म हत्या का पातक लगा था। उससे मुक्ति
के लिए ट्टषियों ने ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि बुधवार के दिन शिवलिंग
की स्थापना कर श्रीराम चंद्र को ब्रह्म हत्या के पातक से मुक्त कराया था।
श्रीरामचंद्र द्वारा स्थापित होने के कारण यह शिवलिंग रामेश्वरम अर्थात राम के
ईश्वर के नाम से जाना जाता है।
8. नागेश्वर (गुजरात, दारुकावन, द्वारका)
श्रीनागेश्वर ज्योतिर्लिंग बड़ौदा
क्षेत्र में गोमती द्वारका से ईशानकोण में बारह-तेरह मील की दूरी पर है। इस पवित्र
ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है। श्री नागेश्वर
शिवलिंग की स्थापना के संबंध में इस प्रकार की कथा है कि एक धर्मात्मा, सदाचारी और शिव जी का अनन्य वैश्य
भक्त था, जिसका नाम
सुप्रिय था। जब वह नौका पर सवार होकर समुद्र मार्ग से कहीं जा रहा था, उस समय दारूक नामक एक भंयकर
राक्षस ने उसकी नौका पर आक्रमण कर सुप्रिय सहित सभी को बंदी बना लिया। पर सुप्रिय
ने बंदी गृह में भी शिव भक्ति नहीं छोड़ी और भगवान शिव वहां ज्योतिर्लिंग रूप में
प्रकट हुए और सुप्रिय को अपना एक पाशुपतास्त्र दिया और अन्तध्र्यान हो गए। उस
अस्त्र से सुप्रिय वैश्य ने राक्षसों का अंत किया और अंत में वह शिवलोक को प्राप्त
हुआ।
9. काशी विश्वनाथ (उत्तर प्रदेश, वाराणसी)
वाराणसी (उत्तर प्रदेश) स्थित
काशी के श्रीविश्वनाथजी सबसे प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में एक हैं। गंगा तट स्थित
काशी विश्वनाथ शिवलिंग का दर्शन हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र
है। काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है।
भगवान रूद्र मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह सांसारिक आवागमन से
मुक्त हो जाता है, चाहे
मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। यह शिवलिंग सबसे पुराने शिवलिंगों में से एक है।
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग किसी मनुष्य की पूजा, तपस्या आदि से प्रकट नहीं हुआ, बल्कि यहां निराकार परब्रह्म
परमेश्वर ही शिव बनकर विश्वनाथ के रूप में साक्षात् प्रकट हुए।
10. त्रयम्बकेश्वर (महाराष्ट्र, त्रयम्बकेश्वर नासिक के निकट)
श्री त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग
महाराष्ट्र प्रांत के नासिक जिले में पंचवटी से 18 मील की दूरी पर ब्रह्मगिरि के
निकट गोदावरी के किनारे है। इस स्थान पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गम भी है। यह
ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला एवं समस्त कष्ट को हरने वाला है।
कहा जाता है कि त्रयम्बकेश्वर में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और शिव के रूप में लिंग
समाहित है।
एक बार गौतम ऋषि पर षड्यंत्र कर
अन्य ऋषियों ने उन्हें गोहत्या में फंसा दिया, तब ऋषि गौतम ने भगवान शिव का
पार्थिव लिंग बना कर उपासना की थी। गौतम की तपस्या से शिव ज्योति रूप से प्रकट हुए
और उन्हें पाप मुक्त किया।
11. केदारनाथ (उत्तराखंड, केदारनाथ)
श्री केदारनाथ हिमालय की केदार
नामक चोटी स्थित पर स्थित हैं। शिखर के पूर्व की ओर अलकनन्दा के तट पर श्री
बदरीनाथ अवस्थित हैं और पश्चिम में मन्दाकिनी के किनारे श्री केदारनाथ हैं। यह
स्थान हरिद्वार से 150 मील और ऋषिकेश से 132 मील दूर उत्तरांचल राज्य में है।
पुराणों एवं शास्त्रों में श्रीकेदारेश्वर-ज्योतिर्लिंग की महिमा का वर्णन बारंबार
किया गया है। यहां की प्राकृतिक शोभा देखते ही बनती है। इस चोटी के पश्चिम भाग में
पुण्यमती मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित केदारेश्वर महादेव का मंदिर अपने स्वरूप से
ही हमें धर्म और अध्यात्म की ओर बढ़ने का संदेश देता है।
केदारनाथ मंदिर का निर्माण
पाण्डवों ने करवाया था। शिवलिंग के विषय में यह चर्चा आती है कि भगवान विष्णु के
नर और नारायण नामक दो अवतार हुए हैं। उन्होंने पार्थिव शिवलिंग बनाकर श्रद्धा और
भक्ति पूर्वक उसमें विराजने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की एवं शिव ने प्रसन्न
होकर अपनी ज्योति यहां प्रदान की और यह शिव लिंग ज्योतिर्लिंग बन गया।
12. घृष्णेश्वर / घुष्मेश्वर महादेव
(महाराष्ट्र, औरंगाबाद)
श्रीघुश्मेश्वर (गिरीश्नेश्वर)
ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहते हैं। यह ज्योतिर्लिंग
महाराष्ट्र राज्य में दौलताबाद से 12 मील दूर बेरुल गांव में स्थित है।
द्वादश ज्योतिर्लिंगो में यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। इनका दर्शन लोक-परलोक दोनों
के लिए अमोघ फलदाई है। श्री घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार बताई गई है
कि देवगिरि नामक पर्वत के समीप ब्रह्मवेता भारद्वाज कुल का ब्राह्मण सुधर्मा निवास
करता था। सुधर्मा की कोई संतान न थी। यद्यपि इसी कारण उनकी धर्मपत्नी सुदेहा बड़ी
दुखी रहती थी। संतान प्राप्ति हेतु सुदेहा ने अपनी छोटी बहन घुश्मा के साथ अपने
पति का दूसरा विवाह करवा दिया। सुधर्मा ने विवाह पूर्व अपनी पत्नी को बहुत समझाया
था कि इस समय तो तुम अपनी बहन से प्यार कर रही हो, किंतु जब इसे पुत्र उत्पन्न होगा
तो तुम इससे ईष्र्या करने लगोगी और ठीक वैसा ही हुआ।
ईष्र्या
में आकर सुदेहा ने घुश्मा के पुत्र की हत्या कर दी, पर
घुश्मा विचलित नहीं हुई और शिव भक्ति में लीन हो गई। उसकी भावना से महादेव ने
प्रसन्न होकर उसके पुत्र को जीवित कर दिया और घुश्मा द्वारा पूजित पार्थिव लिंग
में सदा के लिए ज्योतिरूप में भगवान शिव विराजमान हुए और घुश्मा के नाम को अमर कर
महादेव ने इस ज्योतिर्लिंग को घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग कहा नेपाल के महाचमत्कारिक
पशुपतिनाथ महादेव का अदभुत ज्योतिर्लिंग
नेपाल में पशुपतिनाथ का अदभुत
पंचमुखी ज्योतिर्लिंग
द्वादश ज्योतिर्लिंग के महान्
प्रतीक श्री पशपुति नाथ नेपाल में नागमती के किनारे स्थित कांतिपुर में पशुपतिनाथ
विराजमान हैं। पशुपति नाथ का मंदिर धर्म, कला, संस्कृति की दृष्टि से अद्वितीय
है। काशी के कण-कण जैसैसे शिव माने जाते हैैं ,,वैसे ही नेेपाल में पग-पग पर
मंदिर हैैं, जहां कला
बिखरी पड़ी है..इस कला के पीछे धर्म और संस्कृति की जीवंतता छिपी हुई है। नेपाल का
सुरम्य नगर काठमांडू अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहां का
मौसम प्रकृति को हर माह हरा-भरा रखने के लिए अनुकूल है। चारों तरफ बागमती, इंदुमती और विष्णुमती अनेक कल-कल
करती नदियां, जो कभी
वर्षा के पानी से उछलती-चलती हैं, तो कभी पहाड़ों से निकलने वाले बारहमासी जल स्रोतों का निर्मल
जल ले कर मंद-मंद मुस्कुराती, बल खाती चलती हैं, वे देखने में अत्यंत मोहक और
लुभावनी लगती हैं। प्रायः हर मौसम में यहां फूलों की बहार रहती है, जो देखने में अत्यंत मोहक है। इस
अनुपम प्राकृतिक छटा और भगवान पशुपति के दर्शनार्थ हजारों पर्यटक विश्व के कोने-कोने
से यहां के सौंदर्य की अमिट छाप ले कर लौटते हैं और कुछ दिन यहां रुकने पर एक
अलौकिक शांति अनुभव करते हैं। जो नर-नारी यहां तपस्या, जप, भगवान आशुतोष की
श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजा-अर्चना करते हैं, उनकी सभी कामनाएं पूरी होती हैं।
पशुपति के देदीप्यमान चतुर्मुखी लिंग को कुछ विद्वान ज्योतिर्लिंग मानते हैं और
कुछ विद्वान इसे ज्योतिर्लिंग नहीं मानते। सर्वस्वीकृत शिव पुराण के अनुसार तो
ज्योतिर्लिंग बारह ही हैं, परंतु शिव
पुराण के 351 वें श्लोक में श्री पशुपति लिंग का उल्लेख ज्योतिर्लिंग के समान ही
किया गया है। भगवान् आशुतोष, ऐसी सुंदर तपोभूमि के प्रति आकर्षित हो कर, एक बार कैलाश छोड़ कर यहीं आ कर रम
गये। इस क्षेत्र में यह 3 सींग वाले
मृग बन कर, विचरण करने
लगे। अतः इस क्षेत्र को पशुपति क्षेत्र, या मृगस्थली कहते हैं। शिव को इस
प्रकार अनुपस्थित देख कर ब्रह्नाा, विष्णु को चिंता हुई और दोनों
देवता शिव की खोज में निकले। इस सुंदर क्षेत्र में उन्होंने एक देदीप्यमान, मोहक 3 सींग वाले मृग को चरते देखा।
उन्हें मृग रूप में शिव होने की आशंका हुई। ब्रह्नाा ने योग विद्या से तुरंत पहचान
लिया कि यह मृग नहीं, बल्कि शिव
ही हैं। तत्काल ही उछल कर उन्होंने मृग का सींग पकड़ने का प्रयास किया। इससे सींग
के 3 टुकड़े हो
गये। उसी सींग का एक टुकड़ा इस पवित्र क्षेत्र में गिरा और यहां पर महारुद्र
उत्पन्न हुए, जो श्री
पशुपति नाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए। शिव की इच्छानुसार भगवान् विष्णु ने नागमती के
ऊंचे टीले पर, शिव को
मुक्ति दिला कर, लिंग के
रूप में स्थापना की, जो पशुपति
के रूप में विखयात हुआ। नेपाल माहात्म्य में तथा सुनी जाने वाली जनश्रुति के
अनुसार नित्यानंद नाम के किसी ब्राह्मण की गाय नित्य एक ऊंचे टीले पर जा कर स्वयं
दूध बहा देती थी। नित्यानंद को भगवान् ने स्वप्न में दर्शन दिया। तब उस स्थान की
खुदाई की गयी और यह भव्य लिंग प्राप्त हुआ। भगवान् पशुपति नेपाल के शासकों और
जनता-जनार्दन के परम आराध्य देवता हैं। इस शिव लिंग की ऊंचाई लगभग 1 मीटर है। यह काले रंग का पत्थर है, जो अवश्य ही कुछ विशेष धातुओं से
युक्त है। इसकी चमक, आभा और
शोभा अद्धितीय हैं। नेपालवासियों का ऐसा विश्वास है कि इस लिंग में पारस पत्थर का
गुण विद्यमान है, जिससे लोहे
को स्पर्श करने से वह सोना बन जाता है। जो भी हो, इस भव्य पंचमुखी लिंग में चमत्कार
अवश्य है, जो समस्त नेपाल
के जनता-जनार्दन एवं भारतवासियों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है। नेपालवासी
अपने हर शुभ कार्य के प्रारंभ में भगवान पशुपति का आशीर्वाद प्राप्त करना अनिवार्य
मानते हैं। कुछ लोगों का विश्वास है कि यह मंदिर पहली शताब्दी का है। इतिहासकार
इसे तीसरी शताब्दी का बताते हैं। मंदिर अति प्राचीन है। समय-समय पर इसमें मरम्मत
होती रहती है एवं इसका रखरखाव होता रहा है। नेपाल शासकों के अधिष्ठाता देव होने के
कारण शासन की ओर से इसकी पूरी देखभाल सदैव होती रही है। इस मंदिर में केवल हिंदू
ही प्रवेश कर सकते हैं। मुखय द्वार पर नेपाल सरकार का संगीनधारी पहरेदार हर समय
रहता है। चमड़े की वस्तुएं मंदिर में ले जाना वर्जित है। अंदर फोटो लेना भी मना है।
मंदिर की शोभा मंदिर के पूर्व भाग से, बागमती के पूर्वी तट से भी देखी
जा सकती है। विदेशी पर्यटकों के लिए यह मंदिर आकर्षण का केंद्र माना जाता है। हर
मौसम में प्रायः हजारों विदेशी पर्यटक बागमती के पूर्वी तट से फोटो लेते देखे जाते
हैं। बागमती के पवित्र जल से भगवान पशुपति का अभिषेक किया जाता है। बागमती के
दाहिनी तट पर ही भगवान् पशुपति ज्योतिर्लिंग के गर्भ गृह के सामने ही, मरणोपरांत, हिंदुओं के शव को अग्नि में
प्रज्ज्वलित किया जाता है। नेपालवासी मरने से पूर्व अपने परिजनों को, अंतिम सांस से कुछ समय पहले, यहां ले आते हैं, जिससे पवित्र नदी के स्नान और
गोदान के बाद ही मृत्यु प्राप्त हो, ताकि मोक्ष प्राप्त हो सके। मृत
व्यक्ति के पैर बागमती में लटका देते हैं। कभी-कभी कोई मृतक इस प्रक्रिया से
पुनर्जीवित भी हो जाता है, जैसा की
लोगों में विश्वास है। आम तौर पर ब्राह्मण ही शव को स्नान कराते हैं और मस्तक पर
पशुपति का चंदन लगाते हैं। तत्पश्चात् कफ़न में लपेट कर दाह कर्म संपादित कराते
हैं। भारत-नेपाल के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान की परंपरा, जो आदि काल से थी, वह आज भी विराजमान है। आज भी हर
धर्मपरायण नेपाली नर-नारी श्री काशी विश्वनाथ के दर्शन और गंगा स्नान तथा चारों
धाम यात्रा को जीवन की परम सार्थकता मानते हैं, तो भारत के तीर्थ स्थलों – बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम, द्वारिकाधीश, जगन्नाथपुरी, गंगा सागर आदि यात्रा करने वाले
भारतीय बिना पशुपति दर्शन के अपने आपको पूर्ण नहीं मानते। भारत के बिहार, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों से सड़क
मार्ग, गोरखपुर
तथा रक्सोल आदि से बस द्वारा नेपाल की राजधानी काडमांडू पहुंच सकते हैं। भारत के दिल्ली, लखनऊ, कोलकाता, पटना, मुंबई आदि स्थानों से वायु मार्ग
से भी जाने की व्यवस्था है। काठमांडू में यात्रियों के ठहरने के लिए साधारण से
महंगे होटल उपलब्ध हैं। भारतीय मुद्रा में लगभग 25 रु. से 1000 रु. तक के होटल यहां उलबल्ध हैं।
फाल्गुनी कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को, शिव-पर्वती के विवाहोत्सव के
उपलक्ष्य में, शिव रात्रि
को पूजा-अर्चना का विशेष महत्व है। इस अवसर पर यहां भारत और अन्य राष्ट्र के लोग
दर्शन-पूजन के लिए आते हैं। शिव रात्रि के उपलक्ष्य में यहां विराट मेला लगता है।
यहां मंदिर में दर्शन करने वाले दर्शनार्थियों का तांता त्रयोदशी की अर्द्ध रात्रि
से ही प्रारंभ हो जाता है। यह समय पशुपति दर्शन के लिए उपयुक्त है। यहां के लोगों
का विश्वास है कि पशुपति ही नेपाल की रक्षा करते हैं। पशुपति नाथ के दर्शन से
आरोग्य, सुख, समृद्धि, शांति, संतोष प्राप्त होते हैं तथा मनुष्य
का अगला जन्म पशु योनि में नहीं होता, ऐसा लोगों का विश्वास है।
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